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Guru Ram Das Jayanti 2025: सिख धर्म के चौथे गुरु रामदास जी का जीवन परिचय, जयंती । Guru Ram Das Biography in Hindi। Guru Ramdas Ji History In Hindi

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भारतीय संस्कृति में हमेशा से गुरुओं को महत्व दिया जाता है भारत में गुरुओं को गोविंद के समान अर्थात भगवान का दर्जा दिया जाता है इसीलिए तो कहा गया है-

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खासकर हिंदू और सिख समुदाय में गुरुओं की पूजा की जाती है। सिख धर्म की शुरुआत ही गुरु नानक देव द्वारा हुई थी इसीलिए सिख धर्म के लोगों के जीवन में गुरुओं का बहुत महत्व होता है। वैसे तो सिख धर्म में कई गुरु हुए जिनमें से गुरु रामदास जी भी एक थे।

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि गुरु रामदास जी सिखों के चौथे गुरु थे और उन्होंने ही अमृतसर की स्थापना की थी। अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक 01 सितंबर 2025 को ज्योति जोत दिवस गुरु रामदास जी की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में मनाई जा रही है जबकि सिख कैलेंडर में उनका ज्योति जोत दिवस 26 अगस्त 2025 को ही मनाया गया।

इस बार 09 अक्टूबर 2025 को गुरु रामदास जी की जयंती मनाई जाएगी। 5 सितंबर 2025 को उनकी गुरुगद्दी दिवस के तौर पर मनाया जाएगा। क्योंकि सिख कैलेंडर के अनुसार इसी दिन गुरु रामदास जी सिख धर्म के चौथे गुरु की पदवी संभाली थी।

आज के इस लेख (Guru Ram Das Biography in hindi) में हम अमृतसर के संस्थापक और सिक्खों के चतुर्थ गुरु, गुरु रामदास जी के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करेंगे और उनके पूरे जीवन की कथा को समझेंगे कि कैसे गुरु रामदास जी ने समाज कल्याण के लिए कार्य किया था। तो चलिए लेख को शुरू से लेकर अंत तक पढ़ें।

गुरु रामदास जी का जीवन परिचय (Guru Ram Das Biography in hindi)

रामदास जी का जन्म कब और कहा हुआ?

सिखो के चतुर्थ गुरु, गुरु रामदास जी का जन्म 24 सितंबर 1534 को लाहौर के चुना मंडी में हुआ था। जो की वर्तमान समय में पाकिस्तान में स्थित है। इनके पिताजी का नाम हरदासजी और इनको जन्म देने वाली माता का नाम दयाजी था। यह बचपन से ही स्वावलंबी और नेक दिल इंसान थे।

रामदास जी का प्रारम्भिक जीवन

रामदास जी का उनके बचपन का नाम रामदास जी नहीं बल्कि इनको “जेठा जी” कहकर बुलाया जाता था। वो कहते है ना कि अगर आपके  जीवन में माता-पिता का साथ नहीं लिखा है। तो आप ना चाह कर भी उनके प्रेम को प्राप्त नहीं कर सकते है।

रामदास जी के साथ भी ऐसा ही हुआ। छोटी सी उम्र में ही उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था। घर में किसी बड़े का साया ना होने के कारण वे अपने नाना नानी के पास जाकर रहने लगे। गरीबी की वजह से इन्हें कम उम्र में ही  जीविकाउपार्जन करना प्रारम्भ कर दिया था। इन्होंने अपने बचपन में कठिन परिश्रम करते हुए उबले हुए चने भी बेचे थे और इसी से अपना जीवनयापन करते थे।

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रामदास जी के गुरु बनने का सफर

बचपन में ही इनकी मुलाक़ात एक सत्संगी मंडली से हुई जिनके साथ मिलकर उन्होंने अपनी नई जिंदगी प्रारम्भ की और गुरु अमरदास जी की सेवा करने पहुंच गए। इनकी निस्वार्थ भक्ति और प्रेम भाव की सेवा को देखकर गुरु अमरदास जी इनसे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी बेटी भानिजी का विवाह रामदास जी के साथ करने के निर्णय लिया था।

विवाह के पश्चात भी इन्होंने अपनी सेवा को जारी रखा कभी भी इन्होंने खुद को जमाई के तौर पर पेश नहीं किया बल्कि एक सिख के तौर पर पेश करते हुए उनकी निस्वार्थ सेवा की।

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रामदास जी ने दी अपने जीवन की कठिन परीक्षा

गुरु अमरदास जी की एक और पुत्री थी उनके पति भी वहां पर सेवा करते थे। अमरदास जी का मन सदैव से रामदास जी के साथ ही लगता था और वह उनको ही राजगद्दी का उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। लेकिन लोक मर्यादा को ध्यान में रखते हुए वो ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि लोक मर्यादा यह कहती है कि आप एक व्यक्ति को यह अधिकार नहीं दे सकते है।

लेकिन उन्होंने समय-समय पर दोनों जमाइयो की परीक्षा ली और उन्हें बढ़िया तरीका से परखा। उन्होंने अपने दोनों जमाइयों को आदेश दिया कि आप दोनों को ‘थड़ा’ बनाना है दोनों जमाइयों ने गुरु अमर दास के आदेश से थड़ा बनाना शुरू कर दिया और कुछ समय पश्चात जब गुरु अमर दास जी ने उनके काम को देखा तो उन्होंने दोनों को यह कहा कि आपने यह गलत बनाया है। इसको तोड़कर दोबारा से कुछ नया निर्माण करिए।

जब दोनों जवानों ने थड़ा दोबारा से बनाना शुरू किया और अंत में गुरु अमरदास जी को दिखाया तो उन्होंने फिर से मना कर दिया कि तुम्हारा थड़ा अच्छा नहीं बना है। उसके बाद उन दोनों ने दोबारा से कार्य आरंभ किया ऐसे ही चार पांच बार चलता रहा। पांचवी बार में उनके दूसरे जमाई ने यह कहकर आदेश को ठुकरा दिया कि वह इससे अच्छा थड़ा नहीं बना सकते है और उन्होंने अपने कार्य को वहीं पर छोड़ दिया लेकिन राम दास जी ने उनके आदेश का पालन किया और दुबारा से कार्य शुरू किया। जैसा कि अमर दास जी उन दोनों की परीक्षा ले रहे थे जिसमे  राम दास जी सफल हो गए थे।

रामदास जी परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और उन्हें राज गद्दी उपहार स्वरूप मिली

परीक्षा में सफल होने के पश्चात अमरदास जी ने उनको राजगद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और 1 सितंबर 1574 को गोविंद बाल जिला अमृतसर में गुरु अमर दास जी द्वारा गुरु गद्दी सौंपी गई। इन्होंने अपना कार्यभार सिखों के चौथे गुरु के रूप में संभाला था फिर इन्होंने अपना एक डेरा एक तालाब के किनारे स्थापित किया जहां पर तालाब के अंदर स्थित पानी में बहुत ही अद्भुत शक्ति थी।

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तालाब में अद्भुत शक्ति के चलते उस तालाब के पानी अमृत के समान समझा जाता था। इसलिए वहां से अमृत नाम निकला और तालाब का नाम सरोवर था। इस वजह से वहां का नाम अमृतसर पड़ गया था। उसके पश्चात रामदास जी के पुत्र ने अपने पिता के वर्चस्व को कायम रखने के लिए उस तालाब में एक मंदिर का निर्माण करवाया। जो वर्तमान समय में स्वर्ण मंदिर के नाम से जाना जाता है।

रामदास जी के द्वारा किए गए महान कार्य

रामदास जी एक सवावलंबी और नेक दिल वाले  व्यक्ति थे। उन्होंने जनहित के लिए बहुत सारे महान कार्य किए हैं-

1. गुरु राम दास जी महाराज ने अमृतसर के हर मंदिर साहिब की नींव रखी थी इन्होंने स्वर्ण मंदिर के चारों ओर द्वार का निर्माण करवाया इनका मानना यह था कि मनुष्य सभी समान होते हैं इनका मानना था स्वर्ण मंदिर में हर धर्म के लोगों को आने की अनुमति मिले।

2. इन्होंने अमृतसर में लंगर प्रथा का निर्माण किया जिसके तहत किसी भी समुदाय या धर्म का व्यक्ति लंगर खा सकता था।

3. यह लोगों को प्रति इतने कोमल ह्रदय के थे कि इन्होंने राजा अशोक को भी बहुत ज्यादा प्रभावित किया था और इन्होंने पंजाब प्रांत के लोगों का 1 साल का कर्जा माफ करवा दिया था।

4. इन्होंने बहुत से कविताओं और लावन की रचना की थी। लावन सिखों द्वारा शादियों में गाए जाने वाले राग होते हैं। जिन्हें बहुत ही मंगलकारी माना जाता है। इन्हें 30 के आसपास रागो का ज्ञान था और इन्होंने 638 से ज्यादा भजनों का निर्माण किया था।

5. सम्राट अकबर भी इनके बहुत हितेषी रहे हैं बहन का बहुत ही आदर और सम्मान करते थे।इन्हीं के काल से गुरु के लिए दान लेने की प्रथा शुरू हुई थी क्योंकि सम्राट अकबर ने इन्हें अपना गुरु मान रखा था और इनके लिए उन्होंने दाल मंगवाई थी।

6. गुरु रामदास जी ने “आनंद कार्ज” की शुरुआत की जो आजकल सभी सिख विवाह में रसम के तौर पर निभाई जाती हैं।

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रामदास जी की मृत्यु कब हुई और इनके अगले वारिश कौन थे? 

पूरे 4 साल के कार्यभार के बाद इन्होंने 1 सितंबर 1581 को अलविदा कहां इनकी मृत्यु के पश्चात सभी सिखों में उदासी का माहौल छा गया था लेकिन इन्होंने दुनिया को अलविदा कहने से पहले पांचवे  सिख गुरु के रूप में अपने सबसे छोटे बेटे “अर्जन साहिब” को घोषित कर दिया था।

निष्कर्ष

आज के इस लेख में हमने परम पूज्य गुरु रामदास जी के विषय में विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त की। हम गुरु रामदासजी को इस दुनिया में वापस तो नहीं ला सकते है लेकिन उनके महान गुण और महान कार्यों को अपने जीवन में लाकर के खुद का व समाज का कल्याण तो कर ही सकते हैं। क्योंकि एक महान व्यक्तित्व के धनी के गुणों को धारण करने से आप भी जीवन में महानता के रास्ते पर चल पड़ते है।

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