अनंत चतुर्दशी कब है 2024? अनंत चतुर्दशी, व्रत कथा, इतिहास, गणेश विसर्जन शुभ मुहूर्त (Kab Hai anant chaturdashi 2024 kab hai, Ganesh Visarjan 2024 Date Time, vrat katha)
Ganesh Visarjan 2024 Date: क्या आपके भी काम बनते-बनते बिगड़ रहे हैं? या फिर किसी शुभ कार्यों में बाधाएं आ रही हैं? तो अब आपकी ये दुविधा बहुत जल्द खत्म होने वाली है, क्योंकि भगवान विष्णु का आशीर्वाद आपको मिलने वाला है। जैसा कि आप जानते ही हैं कि यह माह काफी शुभ है। यह पूरा महीना भगवान विष्णु और उनके अवतारों के नाम है।
भाद्रपद माह की शुरुआत में कृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव मनाया गया और हाल ही में देशभर में गणेश चतुर्थी का पावन पर्व भी मनाया गया था। वहीं, अब ‘अनंत चतुर्दशी‘ भी बेहद करीब है। इस दिन श्री हरि की पूजा की जाती है। इस दिन भगवान गणेश का विसर्जन भी किया जाता है। यही कारण है कि इस दिन को बेहद शुभ माना गया है।
इस साल अनंत चतुर्दशी 17 सितंबर 2024 को पड़ रही है। ऐसा कहा जाता है कि अगर इस दिन भक्त सच्चे दिल से भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा करता है। इस खास मौके पर व्रत रखता है, तो उसकी सभी परेशानियां दूर होती है और भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त होता हैं, तो आइए जानते हैं अनंत चतुर्दशी की पूजा विधि, इसका महत्व है, व्रत कथा और विसर्जन का शुभ मुहूर्त क्या है?
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विषय–सूची
अनंत चतुर्दशी कब है? (Kab Hai Anant Chaturdashi 2024)
वैदिक पंचाग के अनुसार, इस साल अनंत चतुर्दशी भाद्रपद माह शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को पड़ रही है। उदया तिथि के अनुसार, अनंत चतुर्दशी 17 सितंबर 2024 को मनाई जाएगी।
अनंत चतुर्दशी की पूजा विधि क्या है?
- इस दिन सुबह जल्दी उठकर सबसे पहले स्नान करके और साफ कपड़े पहनने हैं।
- इसके बाद घर का मंदिर साफ करें और फिर विष्णुजी और मां लक्ष्मी के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करें।
- फिर व्रत का संकल्प लें और पूरे घर में गंगाजल का छिड़काव करें।
- इसके बाद सूर्यदेव को जल अर्पित करें और एक चौकी पर लाल या पीला कपड़ा बिछाकर उस पर मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु की प्रतिमा को स्थापित करें।
- इसके बाद प्रतिमा के पास एक कलश भी रखें फिर परिवार में जितने भी सदस्य हैं, उतनी संख्या में भगवान विष्णु को अनंत रक्षा सूत्र चढ़ाए।
- फिर विष्णुजी और मां लक्ष्मी को फल, फूल, नैवेद्य और धूप-दीप अर्पित करें।
- इसके बाद सच्चे दिल से आरती उतारें और अनंत चतुर्दशी की कथा सुनें और फिर सभी में प्रसाद बांटे।
- ध्यान रहे कि पूजा के बाद पुरुषों को दाएं हाथ में और महिलाओं को बाएं हाथ में अनंत रक्षा सूत्र बांधे।
अनंत चतुर्दशी व्रत कथा
यह उस समय की बात है, जब महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ करवाया था। उस समय यज्ञ के मंडप को बेहद खूबसूरती से सजाया गया था। यज्ञ का मंडप इतना अद्भूत था कि जल और धरती की भिन्नता किसी को पता ही नहीं चल पाती थी। जल में स्थल और स्थल में जल की भांति सा प्रतीत होता था। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से लोग उस अद्भुत मंडप में धोखा खा जाते थे।
एक बार टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ पहुंचे और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गए। यह देखकर द्रौपदी ने उनका मजाक बनाया और उन्हें ‘अंधों की संतान अंधी’ कहा, जिस पर दुर्योधन बहुत ज्यादा चिढ़ गए थे।
द्रौपदी का किया हुआ माजाक उनके ह्रदय में बाण की तरह जा लगा था, जिसके बाद से उनके मन में नफरत पैदा हो गई थी और वह पांडवों से बदला लेना चाहते थे। इसके बाद से दुर्योधन अक्सर उस अपमान का बदला लेने के बारे में सोचते रहते थे। फिर एक दिन दुर्योधन ने पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उनसे अपने अपमान का बदला लेने की सोची। दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया, जिसके बाद प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बाहर वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा।
वन में रहते हुए पांडवों ने अनेक कष्टों का सामना किया। एक दिन भगवान कृष्ण जब उनसे मिलने आए तो युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख बताया और अपने दुख को दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- ”हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो। इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया हुआ राज्य भी तुम्हे वापस मिल जाएगा।”
फिर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें एक कथा सुनाई जो कुछ इस प्रकार है –
प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। दोनों की एक कन्या थी, जो परम सुंदरी थी। कन्या का नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी की मृत्यु के बाद सुमंद ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया और सुशीला का विवाह कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। जब विदाई का समय आया तो कर्कशा ने अपने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े उन्हें बांध कर दे दिए।
इस बात का कौंडिन्य ऋषि को बेहद दुख हुआ और वह अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। लेकिन रास्ते में ही रात हो गई, जिसके बाद वह नदी तट पर ही संध्या करने लगे। सुशीला ने देखा कि वहां पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा कर रही थी। सुशील ने उनसे पूछा तो उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत का महत्व सुशीला का बताया। जिसके बाद सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांधकर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई।
जब कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उन्होंने सारी बात बताई। उन्होंने डोरे को तोड़कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनंत जी का अपमान हुआ और फिर परिणाम यह हुआ कि ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने जब अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात उन्हें बताई। पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते हुए निराश होकर वह एक दिन गिर पड़े तब अनंत भगवान प्रकट होकर बोले- ”हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना काष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्ष व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे।”
इस कथा को सुनने के बाद युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए और चिरकाल तक राज्य करते रहे।
अनंत चतुर्दशी का महत्व
मान्यता के अनुसार, श्री हरी ने सृष्टि के आरंभ में तल, अतल, वितल, तलातल, सुतल, पाताल, रसातल, भू, भव:, स्व:, तप, जन, सत और मह नाम के 14 लोकों की रचना की थी। इस सभी लोकों के पालनहार बनने के लिए श्री हरि ने 14 अवतार लिए थे, जिसमें एक श्री हरि अनंत का रूप भी है। इस रूप का ना तो कोई अंत है और ना आरंभ। इसी कारण श्री हरि के इस रूप को अनंत कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति अनंत चतुर्दशी के दिन श्री हरि की पूजा अर्चना सच्चे मन से करता है, उसे सुख समृद्धि का अनंत फल मिलता है।
अनंत चतुर्दशी के दिन क्यों किया जाता है गणेश विसर्जन?
इस दिन गणेश विसर्जन करने के पीछे का एक मुख्य कारण है, जो महाभारत और महर्षि वेदव्यास से जुड़ा हुआ है। दरअसल, महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास ने भगवान गणेश से महाभारत को लिपिबद्ध करने की प्रार्थना की थी। गणेश जी ने वेदव्यास की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया था और महाभारत लेखन का कार्य गणेश चतुर्थी के दिन से ही शुरू कर दिया था, लेकिन इसे शुरू करने से पहले गणेश जी ने वेदव्यास जी के सामने एक शर्त रखी थी।
गणेश जी ने कहा था- ”मैं जब लिखना शुरू करूंगा, तो कलम को रोकूंगा नहीं, यदि कलम रुक गई तो मैं लिखना बंद कर दूंगा।” तब वेदव्यासजी ने कहा था- ”भगवान आप देवताओं में अग्रणी हैं, विद्या और बुद्धि के दाता हैं और मैं एक साधारण ऋषि हूं। यदि किसी श्लोक में मुझसे त्रुटि हो जाए तो आप उस श्लोक को ठीक कर उसे लिपिबद्ध कर लीजिएगा।” तब गणेश जी ने वेदव्यास की बात में सहमति दी थी और फिर लिखना शुरू किया था। गणेश जी दिन-रात लिखते रहे।
ऐसे में उन्हें थकान तो होनी ही थी, लेकिन इस दौरान उन्हें पानी पीना भी वर्जित था। ऐसे में गणेश जी के शरीर का तापमान बढ़ता चला गया और फिर वेदव्यास ने उनके शरीर पर मिट्टी का लेप किया और भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश जी की पूजा की, जिसके बाद महाभारत लेखन का कार्य शुरू हुआ। इसके पूरा होने में लगभग 10 दिन लग गए थे।
जिस दिन गणेश जी ने महाभारत लेखन का कार्य पूरा किया, उस दिन अनंत चतुर्दशी थी, लेकिन लगातार दस दिनों तक बिना रूके लिखने के कारण भगवान गणेश का शरीर जड़वत हो चुका था। मिट्टी का लेप सूखने पर गणेश जी के शरीर में अकड़न आ गई थी। इसी कारण गणेश जी का एक नाम पार्थिव गणेश भी पड़ा था।
जब वेदव्यास ने देखा कि गणेश जी का शरीरिक तापमान बढ़ा हुआ है और उनके शरीर पर लेप की गई मिट्टी सूख गई है, तो उन्होंने गणेश जी को पानी में डाल दिया। बस उसी दिन से गणपति जी की स्थापना 10 दिनों के लिए की जाती है और फिर 10 दिन बाद अनंत चतुर्दशी पर गणेश जी की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है।